प्रशांत शर्मा/न्यूज़11 भारत
हजारीबाग/डेस्क: आजादी की पहली लडाई तो 1857 में मानी जाती है लेकिन झारखंड के आदिवासियों ने 1855 में ही विद्रोह का झंडा बुलंद कर दिया था. इसमें टाटीझरिया प्रखंड क्षेत्र के आदिवासियों ने भी भाग लिया था. जमींदारों और अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ पहली बार आदिवासियों ने बगावत की बिगुल फूंकी थी. बहराइच में चांद और भैरव को अंग्रेजों ने मौत की नींद सुला दिया. दूसरी तरफ सिद्धो और कान्हू को साहेबगंज के भगनाडीह गांव में ही पेड़ से लटका कर 26 जुलाई 1855 को फांसी दी गई.
हूल दिवस पर टाटीझरिया प्रखंड के झरपो का भी विशेष महत्व है. झरपो में राजा कामाख्या नारायण सिंह का एक प्रशासनिक महल था, जिसका अवशेष अब भी यहां मौजूद है. इस क्षेत्र के आदिवासियों ने इस महल पर भी धावा बोला था और अपनी क्रांति को यहीं से आगे बढ़ाया था. अंग्रेजों के द्वारा राजस्व बढ़ाने के मकसद से जमींदारों के जरिए आदिवासियों, संथाल और अन्य निवासियों से जबरन लगान वसूलने लगे थे. इससे लोगों में असंतोष की भावना मजबूत होती गई और क्षेत्र के सैकड़ों आदिवासी उस वक्त अपनी पारम्परिक हथियार तीर-धनुष, भाला, फरसा लेकर झरपो में जमा हुए थे.
डुगडुगी बजाकर यहां के राजगढ़ से इन्होंने आंदोलन की शुरूआत की थी. बैलगाड़ी पर सवार होकर ये आंदोलन को अमलीजामा पहनाने के लिए रांची के लिए कूच किये थे. जानकर बताते हैं कि इस आंदोलन में यहां के कई स्थानीय लोगों की जानें भी गई थी. बाद में कई वर्षों तक यहां हूल क्रांति के मौके पर लोग एकत्रित होते रहे. टाटीझरिया प्रखंड क्षेत्र के सिमराढाब, करम्बा, पूतो, हरदिया, पानिमाको, सिझुवा, जेरूवाडीह समेत अन्य गांव के आदिवासी यहां से क्रांति की शुरूआत किया था.