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रांची/डेस्क: आज पूरे झारखंड समेत कई देशों में आदिवासी समुदाय की सबसे प्रमुख पर्व सरहुल धूमधाम से मनाया जा रहा है.आदिवासी समुदाय का ये अनोखा पर्व प्रकृति की पूजा से जुड़ा है. इस पर्व के जरिए ही आदिवासी समाज नए साल का स्वागत करता है. सरहुल को नए साल की शुरूआत का प्रतीक माना जाता है, जो मानवजीवन में प्रकृति की महत्ता का प्रतीक है.
हर साल चैत्र शुक्ल पक्ष तृतीया को सरहुल मनाया जाता है. इस दिन आदिवासी समाज नए साल का स्वागत करते हैं. साथ ही धरती माता और सूर्यदेव की अराधना करते हैं. फल फूल और पत्तियों के उपभोग की इजाजत भी लेते हैं. यानी आज के दिन आदिवासी समुदाय प्रकृति से उनके इस्तेमाल की अनुमति मांगता है और सरहुल पूजा के साथ ही नए साल का कृषि जीवन चक्र भी शुरू हो जाता है.
सरहुल का मतलब
सरहुल दो शब्द सर और हूल से मिलकर बना है. इसमें सर का मतलब सरई और सखुआ का फूल है तथा हूल का मतलब क्रांति है. मुंडारी और संथाली भाषा में सरहुल को बाहा पोरोब भी कहा जाता है. वही खोरठा और कुरमाली भाषा में इस त्योहार को सरहुल कहा जाता है. सरहुल पर्व पर आदिवासी साल वृक्ष की पूजा करते है. इस पर्व के साथ आदिवासी समुदाय नए साल की शुरुआत करते है. सरहुल पर्व चैत्र महीने के तीसरे दिन शुक्ल तृतीया तिथि को मनाई जाती है.

सरहुल की पूजा आदिवासी समुदाय के धर्मगुरु यानि कि पाहन करवाते है. पाहन विधिपूर्वक आदिदेव सींग बोंगा की पूजा करते है. पूजा के दौरान सुख और समृधि के लिए रंगा हुआ मुर्गा की बलि भी दी जाती है. रंगा अथवा रंगवा मुर्गा ग्राम देवता को अर्पित किया जाता है. धर्मगुरु यानि पाहन गांव को बुरी आत्मा से दूर रखने के लिए इष्ट देवता से प्रार्थना करते है. पूजा के पहले दिन पाहन घड़े के पानी को देखकर वर्तमान वर्ष में कितनी बारिश होगी, इसकी भविष्यवाणी करते है.
झारखंड समेत कई राज्यों में सरहुल की धूम
यह पर्व झारखंड,बिहार, ओड़िसा और बंगाल में भव्य तरीके से मनाया जाता है. भारत ही नहीं नेपाल, भूटान और बांग्लादेश में भी यह पर्व मनाया जाता हैं. ये पर्व तीन दिवसीय होता है. जहां पूजा के पहले दिन लोग उपवास रखते हैं. सरहुल पर्व से ठीक एक दिन पहले सभी प्रक्रति पूजक उपवास रहकर केकड़ा और मछली पकड़ते है. घर के नए दामाद और बेटे परम्परा के नियमानुसार तालाब में केकड़ा और मछली पकड़ते है. तत्पश्चात घर के चूल्हें के सामने केकड़े को साल के पत्तों में लपेटकर लटका दिया जाता है. मान्यता के अनुसार, आषाढ़ महीने में बीज बोने के समय केकड़े का चूर्ण बनाकर उसे भी खेत में बीज साथ-साथ बोया जाता है. माना जाता है कि इससे खेत की पैदावार में वृद्धि होती है.