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रांची/डेस्क: सिंदूर खेला बंगाली हिंदू संस्कृति और दुर्गा पूजा की समृद्ध परंपराओं का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. यह अनुष्ठान प्रत्येक वर्ष विजयादशमी के दिन, जब देवी दुर्गा की प्रतिमा का विसर्जन होता है, तब बंगाल और दुनिया भर में बड़े ही उत्साह के साथ मनाया जाता हैं. इस परंपरा का गहरा धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व है, जिसे निभाने का मुख्य उद्देश्य परिवार की समृद्धि और महिलाओं के सामुदायिक एकजुटता को सशक्त करना हैं.
क्यों मनाया जाता है सिंदूर खेला?
सिंदूर खेला की शुरुआत कब हुई, इसके बारे में कोई ठोस ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है लेकिन इसे सदियों पुरानी एक प्राचीन परंपरा माना जाता हैं. इसका संबंध पौराणिक कथाओं से जोड़ा जाता है, जिसमें कहा गया है कि देवी दुर्गा हर साल अपने मायके (पृथ्वी लोक) आती है और विजयादशमी के दिन अपने पति भगवान शिव के साथ कैलाश पर्वत लौटती हैं. देवी दुर्गा के इस प्रतीकात्मक विदाई के दौरान विवाहित महिलाएँ सिंदूर खेला का आयोजन करती है, जिसमें वह एक-दूसरे को सिंदूर लगाती हैं.
पौराणिक कथाओं के अनुसार, सिंदूर खेला को सौभाग्य और समृद्धि का प्रतीक माना जाता हैं. बंगाली संस्कृति में विवाहित महिलाओं के लिए सिंदूर न केवल वैवाहिक जीवन का प्रतीक है बल्कि यह उनके पति की दीर्घायु और परिवार की समृद्धि की कामना का भी प्रतीक हैं. इस परंपरा को निभाने से ऐसा माना जाता है कि देवी दुर्गा महिलाओं और उनके परिवारों को सुख-समृद्धि का आशीर्वाद देती हैं.
धार्मिक और सामाजिक दृष्टिकोण
सिंदूर खेला को धार्मिक दृष्टि से सौभाग्य की प्राप्ति और समृद्धि से जोड़ा जाता हैं. बंगाल में परंपरागत रूप से विवाहित महिलाएं ही इस रस्म में भाग लेती हैं. वह एक-दूसरे के माथे और गालों पर सिंदूर लगाकर अपनी वैवाहिक स्थिति को और अधिक मजबूती देती हैं. इसका प्रमुख उद्देश्य पति की लंबी उम्र और परिवार की समृद्धि की कामना करना हैं.
हालांकि समय के साथ-साथ सिंदूर खेला का सामाजिक दृष्टिकोण भी बदलता गया हैं. आजकल इस रस्म में समाज के अन्य वर्गों की महिलाएं भी शामिल होने लगी है, जिनमें विधवा और अविवाहित महिलाएं भी भाग ले रही हैं. इसके पीछे समाज में महिलाओं की एकजुटता और उनकी सामूहिक शक्ति का संदेश निहित हैं.
सिंदूर खेला का सांस्कृतिक महत्व
सिंदूर खेला केवल धार्मिक अनुष्ठान तक सीमित नहीं है बल्कि यह बंगाली संस्कृति और उसकी समृद्ध परंपराओं का एक अहम हिस्सा हैं. यह रस्म बंगाल की सांस्कृतिक पहचान को भी मजबूत करती है, जिसमें महिलाओं का विशेष स्थान होता हैं. इस परंपरा के तहत महिलाओं के बीच आपसी भाईचारे, सामूहिक खुशी और एकता का संदेश निहित हैं.
दुर्गा पूजा का समापन सिंदूर खेला के साथ होता है, जो एक भावनात्मक और उल्लासपूर्ण पल होता हैं. इस रस्म में महिलाएं देवी दुर्गा के साथ अपने संबंधों को सम्मानित करती है और यह दर्शाती है कि देवी दुर्गा हमेशा उनकी रक्षा करेंगी. इसके माध्यम से महिलाओं के लिए यह त्योहार उनके परिवार और समाज की उन्नति के लिए देवी से आशीर्वाद प्राप्त करने का एक अवसर भी हैं.
आधुनिक संदर्भ में सिंदूर खेला
हाल के वर्षों में सिंदूर खेला का आयोजन सिर्फ विवाहित महिलाओं तक सीमित नहीं रहा हैं. विभिन्न सामाजिक संगठनों ने इसे विधवाओं और ट्रांसजेंडर समुदाय की महिलाओं के लिए भी खोला हैं. यह परिवर्तन इस बात का प्रतीक है कि समाज अब परंपराओं को नए दृष्टिकोण से देख रहा है, जिसमें समानता और समावेशिता को अधिक महत्व दिया जा रहा हैं.
सिंदूर खेला न केवल एक धार्मिक अनुष्ठान है बल्कि यह सामुदायिक एकता, सौहार्द और सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक भी बन गया हैं.