आशीष शास्त्री/न्यूज़11 भारत
सिमडेगा/डेस्क: किसी भी जगह की परंपरा, संस्कृति की माटी में रचे बसे, सदियों से क्षेत्र की पहचान बने लोग ही आदिवासी है. आदिवासी का मतलब ही है, जो आदिकाल से जगह के वासी यानी रहने वाले है. माटी के एक एक कण से जिनकी पहचान हो, जंगल के हर दरख्तो से जिनका संबध हो. वही आदिवासी आज हमें हमारी संस्कृति और परंपरा का पहचान कराए.
आज विश्व आदिवासी दिवस है इस दिवस को खास तौर पर मनाया जाने भी लगा है. 9 अगस्त 1982 को संयुक्त राष्ट्र संघ की पहल पर मूलनिवासियों का पहला सम्मेलन हुआ था. इसकी स्मृति में विश्व आदिवासी दिवस मनाने की शुरुआत 1994 में कि गई थी. इस दौरान आदिवासियों की मौजूदा हालात, समस्याएं और उनकी उपलब्धियों पर चर्चा हो रही है. प्रकृति के सबसे करीब रहनेवाले आदिवासी समुदाय ने कई क्षेत्रों में अग्रणी भूमिका निभाई है. संसाधनों के आभाव में भी इस समुदाय के लोगों ने अपनी एक खास पहचान बनाई है. गीत-संगीत-नृत्य से हमेशा ही आदिवासी समुदाय का एक गहरा लगाव होता है. उनके गीतो-नृत्यों में प्रकृति से लगाव दिखता है.
लेकिन मौजूदा समय में आदिवासी समुदाय अपनी भाषा-संस्कृति से विमुख हो रही है. आदिवासियों को अपनी भाषा का संरक्षण और विकास के लिए स्वयं आगे आना होगा. आदिवासी जब तक अपने परिवार, गांव, अपने लोगों के बीच अपनी भाषा में बात नहीं करेंगे, तब तक भाषा का संरक्षण एवं विकास असंभव है. मलयाली, मराठी, बंगाली भाषाओं के तर्ज पर आदिवासी भाषाओं की पढ़ाई एक माध्यम के रूप में स्कूलों में शुरू होनी चाहिए. आदिवासी समाज की लगभग 90 प्रतिशत आबादी गांवो में रहती है. जहां बच्चे हिंदी नहीं जानते. वे मातृ भाषा में पढ़ाई तेजी से सीख पाते हैं. ग्रामीण परिवेश के आदिवासी बच्चों के लिए शुरुआती दौर में हिंदी सीखना और फिर उच्च पढ़ाई के लिए अंग्रेजी में सीखना चुनौतीपूर्ण है. इसलिए धीरे-धीरे उन्हें अधिक रोजगार उन्मुख भाषा द्वारा पढ़ाया जा सकता है.
विश्व आदिवासी दिवस पर महिला अधिकार कार्यकर्त्ता सह प्रखर सामाजिक कार्यकर्त्ता अगुस्टीना सोरेंग ने अपने विचार रखते हुए कहा कि एक दिन हम सब अपनी-अपनी चुप्पियों को लेकर मर जायेंगे और हमारा सबसे आखिरी ख्याल होगा कि हमें बोलना चाहिए था. इसलिए हमें विश्व आदिवासी दिवस के अवसर पर जब यह 31 वाँ विश्व आदिवासी दिवस मन रहा है. आदिवासियत के बारे एवं आदिवासी समाज के बारे हमें बोलना बेहद जरुरी एवं प्रासंगिक हो गया है. उन्होंने कहा कि इस वर्ष 2024 के विश्व आदिवासी दिवस के लिए यूएनओ ने जिस विषय पर अपना ध्यान केंद्रित किया है वो " स्वैच्छिक अलगाव और प्रारंभिक संपर्क में स्वदेशी लोगों के अधिकारों की रक्षा" रखा है. उन्होंने कहा कि विश्व के 90 देशों में आदिवासियों की आबादी है जिनमें 7000 से अधिक भाषाओं की विविधता है किन्तु 40% स्वदेशी भाषाओं पर खतरा है. जिसे देखते हुए यूएनओ ने 2022-2032 के दशक को" स्वदेशी भाषाओं का दशक घोषित किया है एवं भाषाओं के सरंक्षण पर भी काम हो रहा है. 5000 से अलग संस्कृतियों के साथ विश्व की 6% आबादी स्वदेशियों की है. स्वैच्छिक अलगाव और प्रारंभिक संपर्क में मुख्यधारा से दूरी के अभ्यास ने आदिवासियों के क्षेत्र के जंगलों के सरंक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है. जिस तरह से आदिवासियों ने प्रकृति को पुरखा माना और पूजा करते हैं एवं कभी भी किसी की गुलामी स्वीकार नहीं की इन विशेषताओं के कारण आदिवासी आज दमनकारी तरीकों से शोषित हो रहे हैं.
उन्होंने कहा कि यह बताना बेहद अनिवार्य है कि भारत देश ने तो आजादी के 76 वर्ष गुजरने के बाद भी सेंसस में आज तक आदिवासी चिन्हित करने से वंचित रखा है. जो देश के भीतर आदिवासियों के लिए नीतिगत पैरवियों की पोल खोलती है. यही नहीं झारखंङ में पेसा कानून लागु नहीं होना, स्थानीय नियोजन नीति में आदिवासियों का हिस्सा लील गए राजनैतिक लोग आदिवासियों के नाम पर उनके अधिकारों को छीन रहे हैं. जिन जंगलों और प्रकृति के संवर्द्भन, अपने अधिकारों के लिए आदिवासियों ने 1840 से आंदोलन और विद्रोह शुरु किया वो आज भी बदस्तूर जारी है. लद्दाख में चल रहे क्लाईमेट फेस्ट छत्तीसगढ़ का हसदेव अरण्य का आंदोलन, झारखंङ के नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज के दशकों से चल रहे आंदोलन आदिवासियों के लिए आज की चुनौतियों की बानगी मात्र हैं.
उन्होंने कहा कि इन सबमें आदिवासी महिलाओं का योगदान जानना भी महत्वपूर्ण है. जिस तरह से आदिवासी महिलाएं बिना शोरगुल के अपने जल, जंगल, जमीन, पहाङ, मैदान, गरिमा और न्याय की लङाई लङ रही हैं, वो आज तक जानी नहीं गई है. हालांकि आदिवासी महिलाएं कभी रुकी नहीं हैं. प्रख्यात लेखिका अरुंधति राय ने 2010 में बस्तर माओवादी क्षेत्र की यात्रा के बाद आउटलुक पत्रिका में लिखे अपने लेख में आदिवासी महिलाओं के बारे लिखते हुए बताया कि बस्तर के क्रांतिकारी आदिवासी महिला संगठन जिसकी 90000 सदस्य हैं संभवतः भारत का सबसे बङा महिला संगठन है. जो जंगल कोरपोरेट लूट और सरकार की घुसपैठ के साथ आदिवासी समाज के अंदर व्याप्त पितृसत्ता से लङने का काम करता है. वहीं की आदिवासी महिला सोनी सोरी, मरकाम हिङमे, कवासी हिङमे इन तीनों के साथ क्रूर पुलिस दमन का घिनौना प्रयोग यह बताने के लिए काफी है कि जब आदिवासी महिलाएं जंगल बचाने अपने अधिकार के लिए लड़ती हैं तो उनको तोड़ने के लिए घुसपैठ सरकार और कोरपोरेट लूट वाले क्या करते हैं. उन्होंने कहा कि सोनी सोरी को पुलिस हिरासत में उनके यौनांगों में पत्थर भरे गए, उनके मुंह में ज्वलनशील रसायन मला गया, कई मुकदमे दर्ज किए गए . लेकिन जैसा कि आदिवासी किसी की गुलामी स्वीकार नहीं करते सोनी सोरी ने हार नहीं मानी और वे जंगल बचाने से आगे देश बचाने की लङाई की भी आवाज बन चुकीं हैं. भारत देश यूएनओ का सदस्य होने के नाते अनड्रिप दस्तावेज पर हस्ताक्षरकर्त्ता होने के कारण आदिवासियों के व्यक्तिगत एवं सामूहिक अधिकारों की रक्षा करने को प्रतिबद्बता दर्शाता है किन्तु असलियत कुछ और ही है, आज जिन विशेष चुनौतियों का सामना आदिवासी समुदाय कर रहा है वो है अपने संसाधनों "जंगल, जमीन की रक्षा के साथ ही अपने समाज की औरतों के गरिमा और सम्मान को बचाने को लेकर. मणिपुर आदिवासी महिलाओं के ऊपर जिस तरह अमानवीय एवं जघन्य जातीय हिंसा शारीरिक और मानसिक जुल्म संगठित तरीके से संसाधनों की लूट के लिए किया गया यह शायद ही कोई कभी भूल पाए.
उन्होंने कहा कि नेशनल क्राईम रिकोर्डस ब्यूरो के तहत एक दिन 04 में आदिवासी महिला या लङकी का बलात्कार होता है. उक्त रिकोर्ड यह भी बताता है कि आदिवासी महिलाओं के ऊपर 14.3% के अत्याचार बढ़े हैं, आदिवासी महिलाओं के न्याय की पहुंच 25% केस पेङिग हैं 2022 में जबकि कानूनी प्रावधान 2 महीने के भीतर न्याय सुनिश्चित करने को निर्देश देती है. इधर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम ,1989 एवं नियम 1995 आदिवासियों के सुरक्षित और गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार को लागू करने के न्यायक्षेत्र में क्रमागत उन्नति का द्वार खोलने के लिए तथा आदिवासियों के खिलाफ होने वाले अपराधों को रोकने के उद्देश्य से बनाए गए किन्तु दुर्भाग्य से उक्त कानूनों को प्रभावी तरीके से क्रियान्वयन में लाना अभी भी सपना है. जिस भाषा की विविधता को हम आज जश्न बोलके सम्मान दे रहें हैं ये आम दिनों में आदिवासियों के लिए उपेक्षित होने का वजह बन जाता है, उनके सरल स्वभाव और ईमानदार एवं प्रतिस्पर्द्धा से दूर रहने की मूल स्वभाव को कमजोरी बताकर उनके जमीन और संसाधनों की हेराफेरी किसी से छुपी नहीं है.
उन्होंने कहा कि रांची में जमीन दलालों द्वारा आदिवासी जमीनों के लिए गोली चलाकर हत्या के मामले यह बताने को काफी हैं कि आदिवासी के लिए संघर्ष खत्म नहीं हुआ है बल्कि विकराल हुआ है, आज के दिन हम यह बताना चाहते हैं कि जो शक्तिशाली और प्रभावशाली सरकारें और प्रशासन, संस्थाएं आदिवासियों के सरंक्षण के लिए जिम्मेवार हैं उन्हें आदिवासियों के संपूर्ण विरासत उनके संस्कृतियों की विविधता और आदिवासी जनों को बचाने और उनके महिला वर्ग के गरिमा एवं सम्मान को बचाने के लिए आदिवासियों के कानूनों को सुदृंङ तरीके से क्रियान्वयन तथा जरुर हस्तक्षेप कर मजबूत एवं बलवान करना होगा अन्यथा आदिवासियों के लिए परिसंपत्ति बांट देना मात्र छलावा होगा चूंकि आज भी आदिवासी ही समाज के सबसे हाशिए एवं वंचित वर्ग हैं तथा अपने सरल स्वभाव के कारण मुख्यधारा की चालाकियों और लूट से शेषित वर्ग हैं. स्वयं आदिवासी समुदाय को भी संगठित होकर नए तरीके के रणनीति एवं वकालत करने की अनिवार्यता है वरना हमारे अधिकार लूट लिए जायेंगे.