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रांची/डेस्क: दिन 30 जून 1855, स्थान-साहेबगंज का भोगनाडीह, 400 गांवों के करीब 50 हजार संथालों का हुजूम, हर हाथ में परंपरागत हथियार, हर दिल में गुस्सा और हर सीने में आग का तूफान. हर किसी के दिल में आक्रोश चरम पर था. ये आक्रोश और तूफान कोई साधारण नहीं था. ये एक क्रांति थी, नई शुरूआत थी, जिसने कई मिथकों को तोड़ डाला. संथाली भाषा में कह लें तो ये एक ‘हूल’ था. जिसने जनमानस को नई क्रांति के लिए पूरी तरह से उद्वेलित कर डाला. इसने एक नई क्रांति का बीजारोपण किया. एक ऐसी क्रांति जिसने अंग्रेजी सरकार की नींद उड़ा दी. इसे ‘भारतीय स्वतंत्रता का पहला विद्रोह’ भी माना जाता है. हजारों की जानें गईं, हजारों दिव्यांग हुए लेकिन अंग्रेजी सरकार और उनके चमचों की नींद उड़ी रही. अंग्रेज इतिहासकार हंटर कहते हैं कि इस महान हूल में 20 हजार लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया था.
30 जून को क्या हुआ
ये वही दिन था जब 50 हजार से अधिक संथालों ने सिद्धो को अपना राजा चुना. सभा में कान्हू को मंत्री चुना गया. चांद प्रशासक बने और भैरव सेनापति चुने गये. उन दिनों एक नारा बुलंद किया गया, ‘अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो.’ संथालों की मूल लड़ाई महाजनों के खिलाफ थी. लेकिन अंग्रेजों के करीब होने के कारण संथालों ने दोनों के खिलाफ विद्रोह कर दिया था. गुस्सा अंग्रेजों के साथ था लेकिन उनका साथ देने वाले महाजनों के प्रति भी उतना ही था, जो संथालों का शोषण करते थे.
विद्रोह और मार्टिलो टावर
संथाल विद्रोहियों ने अंग्रेजों का जीना हराम कर दिया. धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ रही थी. सरकार और सरकारी कामकाज पर असर पड़ना शुरू हो गया. अंग्रेजों को घेरने और उन्हें खदेड़ने की तैयारी शुरू हो गई. विद्रोहियों के एक स्थान पर जमा होने की सूचना अंग्रेजी सरकार को मिली. विद्रोह को रोकने के लिए अंग्रेजों ने 1856 में रातों-रात एक टावर बनवाया गया जिसे मार्टिलो टावर कहा जाता है. इस भवन में छोटे-छोटे छेद बनाए गए. ये छेद बंदूकों के लिए थे ताकि छिपकर संथालियों को बंदूक से निशाना बनाया जा सके. लेकिन मामला उलटा पड़ गया. ये इमारत आदिवासियों के पराक्रम के आगे नहीं टिक पाई. संथालों का पराक्रम और साहस भारी पड़ा. अंग्रेजों को झुकना पड़ा और उल्टे पांव भाग गये.
हूल दिवस का उद्देश्य
30 जून को नई क्रांति की शुरूआत हुई थी. हजारों लोग एक सूत्र में बंधे थे और अंग्रेजों को भगाने की योजना बनी थी. इसलिए पूरे देश में 30 जून को हूल दिवस मनाया जाता है. इस दिन आदिवासियों की शौर्य गाथा और बलिदान को याद किया जाता है जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी. कह लें तो हम उन 50 हजार अदम्य साहस की प्रतिमूर्ति रहे हूल वीरों को याद करते हैं जिन्होंने भूखे-नंगे रह कर केवल परंपरागत हथियारों से अंग्रेज और उनकी सेना को धूल चटा दी थी.
हूल क्रांति का प्रभाव
हूल क्रांति का प्रभाव पूरे देश में पड़ा. भारत के इतिहास में 1857 के सिपाही विद्रोह को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का पहला विद्रोह माना जाता है लेकिन इससे 2 साल पहले ही क्रांति का बीजारोपण हो चुका था. ये जंग थी गरीबों की, बेबसों की, कर्ज में डूबे लोगों की. वैसे लोग जिनके लिए एक समय का भोजन भी मुश्किल था, उन्होंने विश्व के सबसे बड़े साम्राज्य से लोहा ले लिया था. उनके पास आधुनिक हथियार नहीं थे लेकिन अदम्य साहस था. और इस साहस के बूत ही उन्होंने अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिये थे. 20 हजार लोगों की जान चली गई लेकिन अंत में उन्होंने अपनी माटी से अंग्रेजों को खदेड़कर ही दम लिया था.
आज हूल दिवस पर हम उन सारे वीरों को सादर नमन करते हैं जो अदम्य साहस का परिचय देते हुए शहीद हुए.