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रांची/डेस्क: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को भारतीय संविधान की प्रस्तावना से 'धर्मनिरपेक्ष' और 'समाजवादी' शब्द हटाने की मांग वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया. भारत के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार की बेंच ने मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि हमें लगभग 44 वर्षों के बाद इस संवैधानिक संशोधन को चुनौती देने का कोई वैध कारण या औचित्य करण नहीं मिला है.
परिस्थितियां इस कोर्ट के विवेक का प्रयोग करके विस्तृत जांच करने की अनुमति नहीं देती
मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार की पीठ ने कहा कि परिस्थितियां इस कोर्ट के विवेक का प्रयोग करके विस्तृत जांच करने की अनुमति नहीं देती हैं, क्योंकि संवैधानिक स्थिति स्पष्ट बनी हुई है, जो विस्तृत अकादमिक घोषणा की आवश्यकता को नकारती रही है. यह स्पष्ट स्थिति होने के कारण, हमें वर्तमान रिट याचिकाओं में नोटिस जारी करने का कोई औचित्य या आवश्यकता नहीं दिखती है, और तदनुसार उन्हें खारिज किया जाता है."
"धर्मनिरपेक्ष" और "समाजवादी" शब्दों को पश्चिमी दृष्टिकोण नहीं
बता दें कि ये याचिकाएं बीजेपी नेता और वरिष्ठ अधिवक्ता नेता सुब्रमण्यम स्वामी और वकील बलराम सिंह, करुणेश कुमार शुक्ला और अश्विनी उपाध्याय ने दायर की थीं. अदालत ने पहले कहा था कि धर्मनिरपेक्षता हमेशा संविधान के मूल ढांचे का एक अभिन्न अंग रही है और इस बात पर जोर दिया कि प्रस्तावना में "धर्मनिरपेक्ष" और "समाजवादी" शब्दों को पश्चिमी दृष्टिकोण से नहीं देखा जाना चाहिए.
सुब्रमण्यम स्वामी ने दाखिल की थी याचिका
कोर्ट में याचिकाकर्ता सुब्रमण्यम स्वामी ने तर्क दिया कि 1976 में इन शब्दों को शामिल करना 1949 की मूल प्रस्तावना के साथ विरोधाभासी था. स्वामी ने दावा किया कि कि 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से आपातकाल के दौरान इन शब्दों को शामिल करना केशवानंद भारती मामले (1973) में स्थापित मूल संरचना सिद्धांत का उल्लंघन है, जो संसद को संविधान की आवश्यक विशेषताओं को बदलने से रोकता है. स्वामी ने आगे तर्क दिया कि संविधान के निर्माताओं ने जानबूझकर इन शब्दों को बाहर रखा था. हालांकि, दोनों पक्षों को सुनने के बाद कोर्ट ने धर्मनिरपेक्ष' और 'समाजवादी' शब्द हटाने की याचिका खारिज कर दी.