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रांची/डेस्कः- कारगिल की लड़ाई जब शुरु हुई थी उसके एक साल पहले लद्दाख ट्रेनिंग सेंटर में हनीफ निकनेम से जाने जानेवाले हनीफुद्दीन ने एक गाना गाकर वहां के लोगों का दिल जीत लिया था. गाना था कि लाखों है दिलवाले पर प्.ार नहीं मिलता. एक मुसलमान पिता और हिंदु मां के बेटे हनीफुद्दीन दीवाली और इद दोनों एक साथ मनाते हुए बड़ा हुआ था. हनीफ के युद्ध का युनिट घोष था. हनीफ के पिता अजीजउद्दीन और माता अजीज दोनों सुचना प्रसारण मंत्रालय के सांग एंव ड्रामा डिविजन में काम करते थे,
सैन्य इतिहास की प्रसिद्ध लेखिका रचना बिष्ट रावत अपनी किताब ‘कारगिल अनटोल्ड स्टोरीज़ फ्रॉम द वॉर’ में लिखा है कि “हनीफ़ को सुबह जल्दी उठने की आदत थी. 22 साल की उम्र में जब इंडियन मिलिट्री एकेडमी (आईएमए) के लिए उनका चयन हुआ तो वो अपनी माँ के पास एक बॉन्ड पर दस्तख़त कराने गए.”
लेखिका लिखती है कि “जब उन्होंने उसे पढ़ना चाहा तो उन्होंने अपनी माँ से कहा, ‘पढ़ क्यों रही हो, बस साइन कर दो न.’ जब उनकी माँ हेमा ने कहा कि किसी भी काग़ज़ पर दस्तख़त करने से पहले ये पढ़ना ज़रूरी होता है कि उसमें लिखा क्या है? तब हनीफ़ ने हँसते हुए कहा था, ‘इसमें लिखा है कि अगर मुझे ट्रेनिंग के दौरान कुछ हो गया तो तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा.’ हेमा का जवाब था, ‘भारतीय सेना में जाना तुम्हारा सपना रहा है. मैं तुम्हें रोकूँगी नहीं.’’
6 जून 1999 को हनीफ दो दिन का गश्त लेकर कारचेन ग्लेशियर जाने वाले थे, कर्नल अनील बाटिया बतातें हैं कि हनीफ ने ये तय किया था कि पाकिस्तानी ठिकाने के जितना नजदीक जाना हो वो जाएंगे और उसे फायरिंग करने को लेकर उकसाएंगे. ताकि उनके हथियार व लोकेशन के बारे में पता लग सके. पाकिस्तान और उनके बीच सिर्फ 300 मीटर की दूरी रह गई थी. कैप्टन हनीफ ने साथियों को खबर दी कि पाकिस्तान सैनिक आठ मोर्चे बना रखी है, और किस तरह की हथियार हैं इसकी भी जानकारी देते रहते थे. एक समय के बाद हनीफ खतरे के काफी करीब पहुंच गए थे और उनके साथियों के साथ निशाना बनाते हुए जबरजस्त फायरिंग शुरु कर दी. हनीफ के अचानक से पेट में गोली लगी और वो नीचे गिर पड़ा उनकी सांस धीमी पड़ गई और अंत में रुक गई. जब हनीफ की मौत हुई तो उनकी उम्र सिर्फ 25 साल थी. सैनिको ने हनीफ की पार्थिव शरीर को अपने तरफ लाने का भरपुर प्रयास किया पर लगातार फायरिंग की वजह से ऐसा वे कर नहीं पाए.
कर्नल भाटिया बताते हैं कि वे 10 जुलाई को तुरतुक पहुंच कर लोगों से कहा कि हम अपने साथियों के शव को वापस लाएंगे. हनीफ के मौत के लगभग 43 दिन के बाद कैप्टन एसके धीमान और मेजर संजय ने अपने साथियों के साथ वहां जाने का बीड़ा उठाया, कठिन रास्तों का सफर तय करके वे उस जगह पहुंचे जहां उनकी शहादत हुई थी. दूर से ही उनकी शरीर दिखाई दे रहा था जो पूरी तरह से जम चुका था, पहले तो शव कोचट्टानों के पीछे ले जाया गया फिर कंधे में लादकर सुबह 7 बजे जंगपात पहुंचे.
हनीफ का चेहरा पूरी तरह से काला पड़ गया था लेकिन फिर बी पहचाना जा सकता था. अगले ही दिन एक हालीकाप्टर वहां आया जिसका काम पार्थिव शरीर को ले जाना था. उसी दिन 11 राजपुताना राइफल्स के सैनिक ने ये तय किया कि अब वो 5590 पर कब्जा कर के रहेंगे. और इस मिशन का नाम उसने ऑपरेशन हनीफ रखा.
कारगिल युद्ध में बहादूरी का परिचय देने के लिए हनीफुद्दीन को मरने के बाद वीर चक्र से सम्मानित किया गया. वहीं सब सेक्टर वेस्ट को उनके नाम से सब सेक्टर हनीफ रखा गया था. हनीफ के पार्थिव शरीर को दिल्ली लाया गया वहां उन्हें राजकीय सम्मान के साथ अंतिम विदाई दी गई.